Monday, March 7, 2011

दिल और दौलत Dainik Hindustan 070311

यह आम धारणा है कि सुविधाओं से सुख जुड़ा है। यह धारणा उपभोक्तावाद के युग में ज्यादा मजबूत होती जा रही है, लेकिन क्या सचमुच खुशी सुविधाओं से जुड़ी है और क्या सबका सुविधाओं या भौतिक चीजों से एक जैसा जुड़ाव होता है।

अमेरिका के प्रतिष्ठित 'जर्नल ऑफ एक्सपेरिमेंटल सोशल साइकोलॉजी' में येल और न्यू हैम्पशायर यूनिवर्सिटियों के शोधकर्ताओं ने इस पर एक शोध किया है, जिसका निष्कर्ष यह है कि जिन लोगों को यह लगता है कि उनके आसपास के लोग उन्हें चाहते हैं, उन्हें अपना मानते हैं, वे लोग भौतिक चीजों के प्रति कम जुड़ाव महसूस करते हैं। वे लोग जिन्हें ऐसा लगता है कि उन्हें लोग प्यार नहीं करते और अपना नहीं मानते, वे भौतिक चीजों से ज्यादा जुड़े होते हैं।

शोधकर्ताओं ने 185 लोगों पर शोध किया और पाया कि दूसरी तरह के लोग, पहली तरह के लोगों के मुकाबले वस्तुओं को पांच गुना महत्व दे रहे थे। इसका सीधा-सीधा अर्थ यह है कि जिन्हें जीवन में प्रेम और जुड़ाव की कमी महसूस होती है, वे चीजों के प्रति ज्यादा लगाव महसूस करते हैं या उनमें असुरक्षा की भावना होती है, जिसे वे भौतिक उपलब्धियों के जरिये पूरा करने की कोशिश करते हैं।

जाहिर है, जिसको यह लगता है कि आसपास के लोग उसे प्यार नहीं करते या उसे अपना नहीं मानते, वह असुरक्षित महसूस करेगा और तब उसे लगेगा कि दुनियावी चीजें ही उसे सहारा और सुरक्षा दे सकेंगी। हालांकि यह नहीं कहा जा सकता कि ऐसा जिस व्यक्ति को लगता है, उसके जीवन में प्रेम की सचमुच कमी होगी या लोग उसके दुश्मन होंगे।

अक्सर आदमी अपना प्रतिबिंब बाहर की दुनिया में देखता है, इसलिए जिन्हें दुनिया से शिकायत होती है कि उनसे कोई प्यार नहीं करता, उनकी समस्या यह होती है कि वे किसी से प्यार नहीं कर पाते, वरना दुनिया में प्रेम की कमी तो नहीं है। जैसे उर्दू के मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी ने लिखा है- 'फैजाने मुहब्बत आम सही, इरफाने मुहब्बत आम नहीं' यानी प्रेम की कृपा तो बहुत आम है, लेकिन उसे पहचानने की क्षमता लोगों में बहुत कम पाई जाती है।

लेकिन यह भौतिकवाद का युग है और आजकल भौतिक सुख-सुविधाएं और समृद्धि जोड़ने की जैसी होड़ लगी है, वैसी पहले नहीं थी। 'ग्रीड इज गुड' तो आजकल नारे जैसा हो गया है। उपभोक्ता वस्तुओं की जैसी विविधता अभी उपलब्ध है, वैसी कभी नहीं थी और उस पर टूट पड़ने वाले भी कम नहीं हैं। अब यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि उपभोक्तावाद की वजह से प्रेम और दूसरे मानवीय गुणों की कमी हुई है या प्रेम की कमी की वजह से आदमी चीजों की ओर दौड़ रहा है? इन दोनों में संबंध क्या है?

हम प्रेम नहीं कर पाते, इसलिए भौतिक सुखों की ओर दौड़ते हैं या भौतिक सुखों की दौड़ में प्रेम की जगह नहीं रही? शायद इन दोनों का रिश्ता इतना जटिल है कि ठीक-ठीक यह बताना मुश्किल है कि कारण क्या है और कार्य क्या? मुद्दे की बात यह है कि अगर आपकी जिंदगी में प्रेम की जगह है, तो भौतिक चीजों की जगह कम होगी। कहा भी है कि प्रेम इतनी जगह घेर लेता है कि बाकी चीजों के लिए जगह बचती ही नहीं। प्रेम की गली इतनी संकरी होती है कि उसमें दो लोग ही नहीं समाते, उन्हें भी एक हो जाना पड़ता है, तो चीजों की जगह कहां होगी। फैसला आपका है, जो चाहे चुन लीजिए।

http://www.livehindustan.com/news/editorial/subeditorial/57-116-161335.

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